नई दिल्ली25 मिनट पहले
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चीफ जस्टिस बीआर गवई ने बुधवार को राष्ट्रपति और राज्यपाल की मंजूरी की डेडलाइन तय करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान नेपाल विद्रोह का जिक्र किया। उन्होंने कहा. “हमें अपने संविधान पर गर्व होना चाहिए, देखिए पड़ोसी देशों में क्या हो रहा है। नेपाल में तो हमने देख रहे हैं।”
इस पर जस्टिस विक्रम नाथ ने जोड़ते हुए कहा कि हां, बांग्लादेश भी। जजों ने ये बयान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की दलील पर दिया। इससे पहले सॉलिसिटर जनरल ने कहा,

1970 से अब तक सिर्फ 20 बिल ही राष्ट्रपति के पास लंबित रहे, जबकि 90% बिल एक महीने में पास हो जाते हैं।
सीजेआई ने इस पर भी आपत्ति जताते हुए कहा कि केवल आंकड़ों से निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है। अगर राज्यों के दिए आंकड़े नहीं माने गए तो आपके भी नहीं माने जाएंगे।

सुनवाई के दौरान राज्यों की दलील
तेलंगाना के वकील निरंजन रेड्डी– संविधान 75 साल पहले बना था, जब राज्यों में अलगाव की प्रवृत्ति थी। अब ऐसा नहीं है, इसलिए राज्यपाल को विवेकाधिकार देना राज्यों की शक्ति कम करने जैसा होगा।
तमिलनाडु के वकील पी. विल्सन– बिल राजनीतिक इच्छा का प्रतीक होता है, राज्यपाल अदालत नहीं हैं कि वे उसकी संवैधानिकता पर फैसला करें।
मेघालय के एडवोकेट जनरल अमित कुमार- अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास सिर्फ एक विकल्प है कि बिल पर हस्ताक्षर करना।
वहीं, आंध्र प्रदेश सरकार ने केंद्र की दलीलों का समर्थन किया, लेकिन कहा कि राज्य सरकारें अनुच्छेद 32 के तहत इस मामले पर सीधे सुप्रीम कोर्ट नहीं जा सकतीं।
दरअसल, राष्ट्रपति और राज्यपाल की मंजूरी की डेडलाइन मामले पर सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली 5-जजों की संविधान पीठ सुनवाई कर रही है। इसमें जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर शामिल है।

पिछली 8 सुनवाई में क्या हुआ…
9 सितंबरः कर्नाटक सरकार बोली- राष्ट्रपति और राज्यपाल सिर्फ नाममात्र के प्रमुख
कांग्रेस के नेतृत्व वाली कर्नाटक सरकार ने इस पर अपनी दलील दी और कहा कि संवैधानिक व्यवस्था के तहत, राष्ट्रपति और राज्यपाल सिर्फ नाममात्र के प्रमुख हैं। दोनों, केंद्र और राज्यों में मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर काम करने के लिए बाध्य हैं।
कर्नाटक सरकार की ओर से सीनियर एडवोकेट गोपाल सुब्रमण्यम ने चीफ जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली 5-जजों की बेंच को बताया कि विधानसभा में पारित बिलों पर कार्रवाई के लिए राज्यपाल की संतुष्टि ही मंत्रिपरिषद की संतुष्टि है। पूरी खबर पढ़ें…
3 सितंबर: बंगाल सरकार ने कहा था- राज्यपालों को बिल पर तुरंत फैसला लेना चाहिए इससे पहले, 3 सितंबर को पश्चिम बंगाल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में तर्क दिया था कि बिल के रूप में जनता की इच्छा राज्यपालों और राष्ट्रपति की मनमर्जी के अधीन नहीं हो सकती क्योंकि कार्यपालिका को विधायी प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने से प्रतिबंधित किया गया है।
TMC सरकार ने दलील दी थी कि राज्यपाल को विधानसभा से भेजे गए बिलों पर तुरंत फैसला लेना चाहिए, क्योंकि उनके पास मंजूरी रोकने का कोई अधिकार नहीं है। राज्यपाल संप्रभु की इच्छा पर सवाल नहीं उठा सकते और विधानसभा में पास बिल की विधायी क्षमता की जांच नहीं कर सकते, जो न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता है।
2 सितंबर: बिलों पर विचार करना राष्ट्रपति-राज्यपालों का काम नहीं तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल सरकार ने विधानसभा में पास बिलों पर फैसला लेने के लिए राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए डेडलाइन तय करने के पक्ष में तर्क दिया। पश्चिम बंगाल की ओर से पेश हुए कपिल सिब्बल ने तर्क दिया कि बिलों पर विचार करने के मुद्दे पर राष्ट्रपति और राज्यपालों का कोई व्यक्तिगत काम नहीं है। वे केंद्र और राज्य की मंत्रिपरिषद की मदद के लिए काम करते हैं। पूरी खबर पढ़ें…

28 अगस्त: केंद्र बोला- राज्य सुप्रीम कोर्ट में रिट पिटीशन नहीं दे सकते
केंद्र सरकार ने कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल की विधानसभा से पास बिलों पर कार्रवाई के खिलाफ राज्य सुप्रीम कोर्ट में रिट पिटीशन दायर नहीं कर सकते। केंद्र ने कहा कि राज्य सरकारें अनुच्छेद 32 का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं। क्योंकि मौलिक अधिकार आम नागरिकों के लिए होते हैं, राज्यों के लिए नहीं। पूरी खबर पढ़ें…
26 अगस्त: भाजपा शासित राज्यों ने कहा- कोर्ट समय-सीमा नहीं तय कर सकतीं
26 अगस्त को भाजपा शासित राज्यों ने कोर्ट में अपना पक्ष रखा था। महाराष्ट्र, गोवा, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़, ओडिशा और पुडुचेरी समेत भाजपा शासित राज्यों के वकीलों ने कहा कि बिलों पर मंजूरी देने का अधिकार कोर्ट का नहीं है।
इस पर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) बीआर गवई ने पूछा कि अगर कोई व्यक्ति 2020 से 2025 तक बिलों पर रोक लगाकर रखेगा, तो क्या कोर्ट को बेबस होकर बैठ जाना चाहिए? CJI ने केंद्र सरकार से पूछा कि क्या सुप्रीम कोर्ट को ‘संविधान के संरक्षक’ के रूप में अपनी जिम्मेदारी त्याग देनी चाहिए?
महाराष्ट्र की ओर से सीनियर वकील हरीश साल्वे ने कहा कि बिलों पर मंजूरी देने का अधिकार सिर्फ राज्यपाल या राष्ट्रपति को है। संविधान में डीम्ड असेंट यानी बिना मंजूरी किए भी मान लिया जाए कि बिल पास हो गया जैसी कोई व्यवस्था नहीं है। पूरी खबर पढ़ें…

21 अगस्त: केंद्र बोला- राज्यों को बातचीत करके विवाद निपटाने चाहिए
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि अगर राज्यपाल विधेयकों पर कोई फैसला नहीं लेते हैं तो राज्यों को कोर्ट की बजाय बातचीत से हल निकालना चाहिए। केंद्र ने कहा कि सभी समस्याओं का समाधान अदालतें नहीं हो सकतीं। लोकतंत्र में संवाद को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। हमारे यहां दशकों से यही प्रथा रही है। पूरी खबर पढ़ें…
20 अगस्त: SC बोला- सरकार राज्यपालों की मर्जी पर नहीं चल सकतीं

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निर्वाचित सरकारें राज्यपालों की मर्जी पर नहीं चल सकतीं। अगर कोई बिल राज्य की विधानसभा से पास होकर दूसरी बार राज्यपाल के पास आता है, तो राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के पास नहीं भेज सकते। कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को यह अधिकार नहीं है कि वे अनिश्चितकाल तक मंजूरी रोककर रखें।
19 अगस्त: सरकार बोली- क्या कोर्ट संविधान दोबारा लिख सकती है
इस मामले पर पहले दिन की सुनवाई में केंद्र सरकार की तरफ से अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि ने सुप्रीम कोर्ट के अप्रैल 2025 वाले फैसले पर कहा कि क्या अदालत संविधान को फिर से लिख सकती है? कोर्ट ने गवर्नर और राष्ट्रपति को आम प्रशासनिक अधिकारी की तरह देखा, जबकि वे संवैधानिक पद हैं। पूरी खबर पढ़ें…
तमिलनाडु से शुरू हुआ था विवाद…
यह मामला तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के बीच हुए विवाद से उठा था। जहां गवर्नर से राज्य सरकार के बिल रोककर रखे थे। सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को आदेश दिया कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है।
इसी फैसले में कहा था कि राज्यपाल की ओर से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सामने आया था। इसके बाद राष्ट्रपति ने मामले में सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी और 14 सवाल पूछे थे। पूरी खबर पढ़ें…

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सुप्रीम कोर्ट बोला- पड़ोसियों के बीच में झगड़ा आम बात:उसे अपराध नहीं मान सकते; कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसला रद्द किया

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा- पड़ोसियों में झगड़ा होना आम बात है। अगर पड़ोसियों के बीच में झगड़ा, बहस और हाथापाई भी हो जाती है तो उसे आत्महत्या के लिए उकसाने (IPC की धारा 306) के तहत अपराध नहीं माने जा सकते। जस्टिस बीवी नागरत्ना और के वी विश्वनाथन की बेंच ने कर्नाटक हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें एक महिला को पड़ोसी की आत्महत्या के लिए तीन साल की सजा सुनाई गई थी। कोर्ट ने कहा, धारा 306 में आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला तभी बनता है, जब यह साफ हो कि आरोपी ने जानबूझकर पीड़ित को आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया हो। पढ़ें पूरी खबर…